ऑटिज्म …….एक महत्वपूर्ण समझ और जागरूकता की आवश्यकता



ऑटिज्म का परिचय


ऑटिज्म एक न्यूरो-डाइवर्सिटी है जो बच्चों के सामाजिक व्यवहार, संचार, और विकासात्मक क्षमताओं को प्रभावित करती है। इसे एक स्पेक्ट्रम माना जाता है, जिसका अर्थ है कि इसके लक्षण हर बच्चे में अलग-अलग तरह से दिखाई देते हैं। प्रत्येक ऑटिज्म से प्रभावित बच्चे की ज़रूरतें और लक्षण अलग होते हैं, इसलिए समाज में इस स्थिति के प्रति जागरूकता और समझ बढ़ाना जरूरी है ताकि बच्चों को बेहतर समर्थन मिल सके।

ऑटिज्म को लेकर आम भ्रांतियाँ


अक्सर ऑटिज्म को एक बीमारी समझा जाता है और इसके इलाज के लिए दवाओं का सहारा लिया जाता है, जो सही हस्तक्षेप की दिशा बदल देता है। यह समझना आवश्यक है कि ऑटिज्म एक "न्यूरो-डाइवर्सिटी" है—एक अलग प्रकार का मस्तिष्क। शोध बताते हैं कि 70% ऑटिज्म से प्रभावित बच्चे बिना विशेष थेरेपी के समय के साथ बोलना शुरू कर देते हैं, लेकिन 2 से 8 वर्ष की उम्र में सही हस्तक्षेप न होने पर उनके सामाजिक और संचार कौशल प्रभावित हो सकते हैं।

सही समय पर हस्तक्षेप का महत्व


यदि 2-8 वर्ष की उम्र के बीच उचित हस्तक्षेप नहीं होता है, तो बच्चों का भाषा विकास और सामाजिक संबंध बनाने की क्षमता कमजोर रह सकती है। यह उनके लिए दूसरों की भावनाओं को समझना और समाज के साथ स्वस्थ संबंध बनाना कठिन बना देता है। नतीजतन, 80% से अधिक वयस्क ऑटिज्म से प्रभावित व्यक्ति मानसिक स्वास्थ्य चुनौतियों का सामना करते हैं, और उन्हें जीवनभर दवाइयों की आवश्यकता हो सकती है।

ऑटिज्म के संभावित कारण


ऑटिज्म के सटीक कारण अब तक स्पष्ट नहीं हो सके हैं, लेकिन शोध से पता चलता है कि इसमें अनुवांशिक और पर्यावरणीय कारकों का योगदान होता है। कुछ बच्चों में पारिवारिक इतिहास होता है, जबकि अन्य में माता-पिता की उम्र, गर्भावस्था के दौरान संक्रमण, और अन्य कारक इस स्थिति के जोखिम को बढ़ा सकते हैं।

ऑटिज्म प्रभावित बच्चों की विशेषताएँ


ऑटिज्म से प्रभावित मस्तिष्क की अपनी विशेषताएं होती हैं। वे देखकर (दृश्य समझ) अधिक सीखते हैं और उनकी याददाश्त मजबूत होती है। उनके पास छोटी-छोटी बातों पर ध्यान देने की अद्वितीय क्षमता होती है। उदाहरण के लिए, एक ऑटिज्म प्रभावित बच्चा किसी खिलौने को देखकर उसकी बारीकियों को समझने की कोशिश करता है और इसमें एक अनुसंधान-प्रधान दृष्टिकोण अपनाता है। वे अक्सर अपनी पसंद के अनुसार चीजों का चयन करते हैं और बार-बार उन्हीं में रुचि दिखाते हैं।

चाइल्ड-लेड पेरेंटिंग का महत्व


ऑटिज्म से प्रभावित बच्चों के लिए चाइल्ड-लेड पेरेंटिंग का तरीका प्रभावी साबित होता है। इसमें बच्चों की रुचियों और ज़रूरतों का सम्मान किया जाता है और उनकी कठिनाइयों को समझते हुए व्यवहार में बदलाव लाया जाता है। यह दृष्टिकोण बच्चों के आत्मविश्वास और विकास में सहायता करता है और उनके संचार और सामाजिक कौशल को बढ़ावा देता है।

समाज में जागरूकता की आवश्यकता


ऑटिज्म के प्रति समाज में सहानुभूति और जागरूकता बढ़ाने की आवश्यकता है। परिवार, शिक्षक और समुदाय के सभी वर्गों को इस बारे में समझने और ऑटिज्म से प्रभावित बच्चों के लिए एक सहायक वातावरण प्रदान करने की जरूरत है। स्कूलों और समुदायों में जागरूकता अभियान चलाकर सही जानकारी का प्रसार किया जा सकता है ताकि इन बच्चों को उनकी विशेषताओं के साथ स्वीकार किया जा सके।


ऑटिज्म से प्रभावित बच्चे अपनी विशेष क्षमताओं के साथ समाज का हिस्सा हैं और सफलता हासिल कर सकते हैं। हमें उनकी ज़रूरतों को समझते हुए उनके साथ सहानुभूतिपूर्वक सहयोग करना चाहिए।

(डॉ. टी. आर. यादव, विकासात्मक बाल रोग विशेषज्ञ)

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